CBSE Class 10 Vyakran Revision Notes for Ras
रस
रस- रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। हिन्दी भाषा के किसी काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की प्राप्ति होती है, उसे रस कहा जाता है। रस को हिन्दी काव्य की आत्मा या प्राण भी माना जाता है।
रस उत्पत्ति को सबसे पहले परिभाषित करने का श्रेय भरत मुनि को जाता है। उन्होंने अपने 'नाट्यशास्त्र' में आठ प्रकार के रसों का वर्णन किया है। भरतमुनि ने लिखा है- विभावानुभावव्यभिचारी- संयोगद्रसनिष्पत्ति अर्थात विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
- स्थायी भाव- स्थायी भाव का अर्थ होता है प्रधान भाव और प्रधान भाव वही हो सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है।
- विभाव- साहित्य में, वह कारण जो आश्रय में भाव जाग्रत या उद्दीप्त करता हो। उसे विभाव कहते हैं।
इसके दो भाग होते है–
- आलंबन विभाव- जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते हैं। जैसे- नायक-नायिका आदि।
आलंबन विभाव के दो पक्ष होते हैं:
आश्रयालंब
विषयालंबन
जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालंबन तथा जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालंबन कहलाता है। उदाहरण: यदि राम के मन में सीता के प्रति प्रेम का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय। - उद्दीपन विभाव- जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होने लगता है। जैसे- चाँदनी, एकांत स्थल आदि।
- आलंबन विभाव- जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते हैं। जैसे- नायक-नायिका आदि।
- अनुभाव- मनोगत भाव को व्यक्त करने वाले शरीर-विकार अनुभाव कहलाते हैं।
ये आठ तरह के होते है।
स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वर-भंग, कम्प, विवर्णता (रंगहीनता), अश्रु, प्रलय (संज्ञाहीनता या निश्चेष्टता) आदि। - संचारी भाव- मन में आने-जाने वाले भावों को संचारी या व्यभिचारी भाव कहते हैं।
(1) हर्ष (2) विषाद (3) त्रास (भय/व्यग्रता) (4) लज्जा (5) ग्लानि (6) चिंता (7) शंका (8) असूया (दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता) (9) अमर्ष (विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पत्र दुःख) (10) मोह (11) गर्व (12) उत्सुकता (13) उग्रता (14) चपलता (15) दीनता (16) जड़ता (17) आवेग (18) निर्वेद (अपने को कोसना या धिक्कारना) (19) घृति (इच्छाओं की पूर्ति, चित्त की चंचलता का अभाव) (20) मति (21) बिबोध (चैतन्य लाभ) (22) वितर्क (23) श्रम (24) आलस्य (25) निद्रा (26) स्वप्न (27) स्मृति (28) मद (29) उन्माद 30) अवहित्था (हर्ष आदि भावों को छिपाना) (31) अपस्मार (मूर्च्छा) (32) व्याधि (रोग) (33) मरण
रस के प्रकार तथा उनके स्थायी भाव
- श्रृंगार रस- नायक नायिका के सौंदर्य तथा प्रेम संबंधी वर्णन को श्रृंगार रस कहते हैं। श्रृंगार रस को रसराज या रसपति कहा गया है।
इसका स्थाई भाव रति होता है।
नायक और नायिका के मन में संस्कार रूप में स्थित रति या प्रेम जब रस की अवस्था में पहुँच जाता है तो वह श्रृंगार रस कहलाता है। इसके अंतर्गत सौन्दर्य, प्रकृति, सुन्दर वन, वसंत ऋतु, पक्षियों का चहचहाना आदि के बारे में वर्णन किया जाता है।
श्रृंगार रस दो प्रकार के होते है –
- संयोग श्रृंगार- जहाँ आलंबन और आश्रय के बीच परस्पर मेल-मिलाप और प्रेमपूर्ण वातावरण हो, वहाँ संयोग शृंगार होता है।
स्थायी भाव- रति
संचारी भाव- लज्जा, जिज्ञासा, उत्सुकता आदि।
आलंबन- नायक, नायिका, गायन - वादन, कृति अथवा प्राकृतिक उपादान।
आश्रय- नायक, नायिका, श्रोता या दर्शक।
उद्दीपन- व्याप्त सौन्दर्य आदि।
अनुभाव- नायक, नायिका, श्रोता या दर्शक का मुग्ध होना, पुलकित होना आदि।
उदाहरण
- 'राम को रूप निहारति जानकी, कंगन के नग की परछार्इं।
याते सबै सुधि भूलि गर्इ, कर टेक रही पल टारति नाहिं।।
अर्थ: प्रस्तुत पंक्तियों में तुलसीदास जी कहते हैं कि सीता प्रभु श्रीराम का रूप निहार रही हैं क्योंकि दूल्हे के वेश श्रीराम अत्यन्त मनमोहक दिख रहे हैं। जब अपने हाथ में पहने कंगन में जड़ित नग में प्रभु श्रीराम की मनमोहक छवि की परछाई देखती हैं तो वो स्वयं को रोक नही पातीं हैं और एकटक प्रभु श्रीराम की मनमोहक छवि को निहारती रह जाती हैं। - बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाय।
सौंह करे, भौंहनि हंसैं, दैन कहै, नटि जाय।
अर्थ: कृष्ण से बात करने के लिए गोपियाँ उनकी मुरली छिपा देती हैं।एक और वे कृष्ण के सामने उनकी मुरली न छिपाने के सौंगंध खाती है और दूसरी और भौंहों ही भौंहों में हँसती रहती है और मुरली के अपने पास होने का संकेत भी दे देती है। - वियोग श्रृंगार– जहाँ आलंबन और आश्रय के बीच परस्पर दूरी, विरह अथवा तनावपूर्ण वातावरण हो, वहाँ वियोग श्रृंगार होता है।
स्थायी भाव- रति
संचारी भाव- उदासी, दुख, निराशा आदि।
आलंबन- विरहाकुल नायक-नायिका, उदास गायन-वादन
दुखड़ी कृति अथवा विनष्ट प्राकृतिक उपादान।
आश्रय- विरहाकुल नायक-नायिका, उदास श्रोता या दुखी दर्शक।
उद्दीपन- व्याप्त दुखदायी कारण और वातावरण आदि।
अनुभाव- नायक, नायिका, श्रोता या दर्शक का हताश,उदास और निराश होना
उदाहरण
- निसदिन बरसत नयन हमारे,
रहती पावस ऋतू हम पै जब ते स्याम सिधारे
अर्थ: (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) हमारे नेत्र रात-दिन वर्षा करते हैं; (क्योंकि) जब से श्यामसुन्दर यहाँ से चले गये हैं, तब से हमारे निकट सदा वर्षा-ऋतु ही रहती है।
- हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी
तुम देखि सीता मृग नैनी।
अर्थ: श्रीरामचरित मानस में तुलसीदासजी लिखते हैं कि व्याकुल हो भगवान श्रीराम सीताजी को वन-वन ढूँढ़ते फिर रहे हैं। वह पशु, पक्षियों से सीता के बारे में पूछते हैं। कहते हैं कि हे पक्षियों! हे पशुओं! हे भौंरों की पंक्तियों! तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है।
- संयोग श्रृंगार- जहाँ आलंबन और आश्रय के बीच परस्पर मेल-मिलाप और प्रेमपूर्ण वातावरण हो, वहाँ संयोग शृंगार होता है।
- हास्य रस- जब किसी काव्य आदि को पढ़कर हँसी आये तो समझ लीजिए यहां हास्य रस है।
स्थायी – हास
संचारी - खुशी, प्रसन्नता, चंचलता, चपलता, उत्सुकता।
आलंबन - विचित्र स्थिति, बात, वेश, आकृति भाषा, हावभाव, कार्य आदि।
आश्रय - हँसाने वाले, पात्र (जोकर, अभिनेता), दर्शक, श्रोता।
उद्दीपन - हँसाने वाले के हाव-भाव, बातें, क्रियाएँ, चेष्टाएँ, स्थितियाँ, यादें आदि।
अनुभाव - ठहाका, पेट हिलना, दाँत दिखना, पेट पकड़ना, मुँह लाल होना, चेहरा चमकना, आँखों में पानी आना आदि।
उदाहरण-
- बुरे समय को देख कर गंजे तू क्यों रोय।
किसी भी हालत में तेरा बाल न बाँका होय। - हाथी जैसा देह, गेंडे जैसी चाल।
तरबूज़े सी खोपड़ी, खरबूज़े से गाल।।
- बुरे समय को देख कर गंजे तू क्यों रोय।
- करुण रस- इस रस का स्थायी भाव शोक है। जिन काव्यों को पढ़कर शोक की अनुभूति होती है, वे करुण रस से मिलकर बने होते हैं।
स्थायी - शोक
संचारी - ग्लानि, मोह, स्मृति, चिंता, दैन्य, विषाद, उन्माद।
आलंबन - अपनों का मरण, दुरावस्था, गरीब, अपाहिज, दुर्घटना, आदि।
आश्रय - शोक - ग्रस्त व्यक्ति।
उद्दीपन - आघात करने वाला, हानिकर्ता, अपनों की याद, दुर्घटना आदि।
अनुभाव - रोना-धोना, गिड़गिड़ाना, आह, चित्कार, प्रलाप, छाती पीटना।उदाहरण
- जथा पंख बिनु खग अति दीना।मनि बिनु फन करिवर कर हीना।
असमय जिवन बंधु बिनु हो ही। जौ जड़ देव जिमावाहि मोहि।।
अर्थ: जैसे पंख बिना पक्षी, मणि बिना सर्प और सूँड बिना श्रेष्ठ हाथी अत्यंत दीन हो जाते हैं, हे भाई! यदि कहीं जड़ दैव मुझे जीवित रखे तो तुम्हारे बिना मेरा जीवन भी ऐसा ही होगा॥
- " हा! वृद्धा के अतुल धन हा ! वृद्धता के सहारे ।
हा ! प्राणों के परमप्रिय हा ! एक मेरे दुलारे ।
हा! शोभा के सप्त सम हा ! रूप लावण्य हारे ।
हा ! बेटा हा ! हृदय धन हा ! नेत्र तारे हमारे । "
- जथा पंख बिनु खग अति दीना।मनि बिनु फन करिवर कर हीना।
- वीर रस- स्थायी भाव उत्साह जब विभाव, संबंधित अनुभावों और संचारी भावों के सहयोग से परिपुष्ट होता है, तब वीर रस की उत्पत्ति होती है।
स्थायी भाव - उत्साह
संचारी भाव - गर्व, हर्ष, रोमांच, आवेग, ग्लानि
आलंबन - शत्रु, दीन, संघर्ष
आश्रय - उत्साही व्यक्ति
उद्दीपन - सेना, रणभेरी, शत्रु की बातें, जयकार, समर्थन आदि।
अनुभाव - दहाड़, रोंगटे खड़े होना, आक्रमण, हुँकार आदि।उदाहरण
- रे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी,
सीमित वन में ही नहीं, बहुत बसते पुरग्राम-घरों में भी।
ये नर-भुजंग मानवता का, पथ कठिन बहुत कर देते हैं,
प्रतिबल के वध के लिए नीच, साहाय्य सर्प का लेते हैं।
- बुंदेले हर बोलो के मुख हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।।
- रे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी,
- रौद्र रस- जहाँ क्रोध, वैर, अपमान अथवा प्रतिशोध का भाव भिन्न-भिन्न संचारी भावों,विभावों और अनुभावों के कारण क्रमश: बढ़ते हुए सीमा पार कर जाए वहाँ रौद्र-रस अभिव्यक्ति होता है।
स्थायी – क्रोध
संचारी - गर्व, घमंड, अमर्ष, आवेग, उग्रता आदि।
आलंबन - शत्रु, विरोधी, अपराधी, क्रोध का कारण।
आश्रय - क्रोधित व्यक्ति।
उद्दीपन - शत्रुतापूर्ण कार्य, विरोध, अपमान, कटुवचन, आज्ञा का उल्लंघन, नियम-भंग आदि।
अनुभाव - आँखें लाल होना, काँपना, ललकारना, हुँकारना, शस्त्र उठाना, कठोर वाणी, गुर्राना,हाँफना, चीखन आदि।
उदाहरण- श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे।
सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे॥
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े॥
- उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जागा।
- श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे।
- भयानक रस- जहाँ किन्हीं परिस्थितियों वश भय का भाव अभिव्यक्त हो, वहाँ भयानक रस होता है।
स्थायी - भय
संचारी - चिंता, हानि, आशंका, त्रास आदि।
आलंबन - सन्नाटा, शत्रु-सामर्थ्य
आश्रय - भयभीत व्यक्ति
उद्दीपन - दुर्घटना, पागलपन, मूर्खता, शत्रु की चेष्टा, भयानक दृश्य आदि।
अनुभाव - काँपना, पसीना होना, चेहरा पीला होना, चिल्लाना, रोना आदि।उदाहरण
- भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥
- अखिल यौवन के रंग उभार, हड्डियों के हिलाते कंकाल॥
कचो के चिकने काले, व्याल, केंचुली, काँस, सिबार ॥
- भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
- वीभत्स रस- जहाँ किसी वस्तु, व्यक्ति, स्थान या दृश्य को देखकर घृणा (जुगुत्सा) मन में उत्पन्न हो, वहाँ वीभत्स रस होता हो।
स्थायी - जुगुत्सा (घृणा)।
आलंबन - रक्त, क्षत-विक्षत शव, बिजबिजाती नालियाँ आदि।
आश्रय - फैली हुई गंदगी और सड़ांध, घृणा उत्पन्न करने वाले दृश्य आदि जिसमें घृणा का भाव जगे।
उद्दीपन - जख्म रिसना, लाश सड़ना, अंग गलना, नोंचना, घसीटना, फड़फड़ाना, छटपटाना।
अनुभाव - धिक्कारना, थूकना, वमन करना, नाक-भौं सिकोड़ना, नाक बंद करना, मुँह घुमाना, आँख मूँदना आदि।
संचारी - मोह, ग्लानि, शोक, विषाद, आवेग, जड़ता, उन्माद ।
उदाहरण
- 'विष्टा पूय रुधिर कच हाडा
बरषइ कबहुं उपल बहु छाडा'
वह कभी विष्ठा, खून, बाल और हड्डियाँ बरसाता था और कभी बहुत सारे पत्थर फेंकने लगता था।
- आँखे निकाल उड़ जाते, क्षण भर उड़ कर आ जाते
शव जीभ खींचकर कौवे, चुभला-चभला कर खाते
भोजन में श्वान लगे मुरदे थे भू पर लेटे
खा माँस चाट लेते थे, चटनी सैम बहते बहते बेटे
- 'विष्टा पूय रुधिर कच हाडा
- अद्भुत रस- जहाँ सुनी अथवा अनसुनी वस्तु / व्यक्ति / स्थान के विचित्र एवं आश्चर्यजनक रूप को देखकर विस्मय हो, वहाँ अद्भुत रस होता है।
स्थायी - विस्मय।
संचारी - औत्सुक्य, आवेग, हर्ष, गर्व, मोह, वितर्क।
आलंबन - विचित्र वस्तु, असामान्य घटना, विलक्षण दृश्य।
आश्रय - विस्मित या आश्चर्यचकित व्यक्ति।
उद्दीपन - वस्तु की विचित्रता, घटना की नवीनता,दृश्य की विलक्षणता।
अनुभाव - मुँह फाड़ना, आँखें बड़ी करना, भौंह तानना, स्तंभित होना, जड़वत होना,
गद्गद होना, चुप हो जाना, मुँह ताकना, रोमांचित होना आदि।उदाहरण
- क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!
अर्थ: पंचवटी में जो चारों तरफ प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा पड़ा है उसको निहार कर मन में विचार आता है कि यहाँ कितनी स्वच्छ और निर्मल चांदनी है। रात भी बहुत शांत है। चारों तरफ सुगंधित वायु धीरे धीरे बह रही है। पंचवटी में चारों तरफ आनंद ही आनंद बिखरा पड़ा है। पूरी तरह शांत वातावरण है और सभी लोग सो रहे हैं। फिर भी नियति रूपी नटी अर्थात नर्तकी अपने सारे क्रियाकलापों को बहुत शांत भाव से पूरा करने में मगन है। अकेले-अकेले और निरंतर एवं चुपचाप अपने कर्तव्यों का पालन किए जा रही है।
- कनक भूधराकार सरीरा
समर भयंकर अतिबल बीरा।
अर्थ: अतः मेरे हृदय में बड़ा भारी संदेह होता है (कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे जीतेंगे!)। यह सुनकर हनुमान जी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का (अत्यंत विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान और वीर था
- क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
- शांत रस- जहाँ सांसारिक इच्छाओं के शमन का आनंद हो अथवा सांसारिकता के प्रति वैराग्य भाव जगता हो, वहाँ शांत रस होता है।
स्थायी - वैराग्य।
संचारी - हर्ष, ग्लानि, धृति, क्षमा, विबोध, दैन्य।
आलंबन - सांसारिक क्षण-भंगुरता, ईश्वरीय ज्ञान, परोपकार, ईश्वर पूजा आदि।
आश्रय - जिसके मन में वैराग्य उत्पन्न हो।
उद्दीपन - संत वचन, प्रवचन, संत - समागम, तीर्थाटन, सत्संग।
अनुभाव - आँखें मूँदना, अश्रु बहाना, ईश्वर भजना, ध्यानस्थ होना आदि।
उदाहरण
- जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै,
अंधे को सबकुछ दरसाइ।।
अर्थ: सर्वेश्वर श्रीहरि के चरण कमलों की मैं वन्दना करता हूँ। जिनकी कृपा से पंगु (दोनों पैर से लँगड़ा) भी पर्वत को पार करने में समर्थ हो जाता है, (जिनकी कृपा से) अंधे को सब कुछ दीखने लगता
- मेरो मन अनत सुख पावे
जैसे उडी जहाज को पंछी फिर जहाज पे आवै।
अर्थ: यहाँ भक्त की भगवान के प्रति श्रद्धा की उत्कृष्ट भावना का उल्लेख किया गया है कि भक्त का मन कहीं नहीं लगता जैसे जहाज का पंछी वापस लौट कर जहाज पर ही आ जाता है।
- जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै,
- वात्सल्य रस- जब अपने या पराए बालक को देखकर या सुनकर उसके प्रति मन में एक सहज आकर्षण या बाल-रति का भाव उमड़ता हो वहाँ वात्सल्य रस होता है
स्थायी - संतान प्रेम या बाल-रति।
संचारी - हर्ष, मोद, चपलता, आवेग, औत्सुक्य, मोह।
आलंबन - बालक के चिताकर्षक हाव - भाव, बोली एवं रूप-सौंदर्य।
आश्रय - माता, पिता, दर्शक, श्रोता, पाठक।
उद्दीपन - बाल सुलभ क्रीड़ा, बातें, चाल, चेष्टाएँ, तुतलाना, जिद।
अनुभाव - गोद में सोना, प्यार जताना, गले लगाना, चूमना, बाहों में भरना, उसी के समान बोलना, साथ में खेलना आदि।
उदाहरण
- मैया मोरी दाऊ ने बहुत खिजायो।
मोसों कहत मोल की लीन्हो तू जसुमति कब जायो।
अर्थ: श्रीकृष्ण अपनी माँ से अपनी भाई की शिकायत करते हुए कहते हैं कि भाई मुझे बहुत तंग करते हैं वे कहते हैं कि मैं तुम्हारा पुत्र नहीं हूँ, क्योंकि तुम्हें तो हमने मोल लिया है।
- बाल- दसा - सुख निरखि जसोदा, पुनि -पुनि नन्द बुलावति।
अँचरा तर लै ढाँकि, 'सूर' के प्रभु कौ दुध पियावति।
उदा.- जशोदा हरि पालने झुलावे।
उदा. " किलकत कान्ह घुटरूवन आवत।
मनिमय कनक नन्द कै आँगन बिंब पकरिबै धावत।
कबहु निरखि हरि आपु छाँह कौ, कर सौं पकरन चाहत।
किलकि हंसत राजत दुवै दतियां,पुनि -पुनि तिहिं अवगाहत। - मैया मोरी दाऊ ने बहुत खिजायो।
- भक्ति रस- जहाँ ईश्वर के प्रति श्रद्धा और प्रेम का भाव हो,वहाँ भक्ति रस होता है।
स्थायी - ईश्वर प्रेम।
संचारी - विवोध, चिंता, संत्रास, धृति, दैन्य, अलसता।
आलंबन - ईश्वर कृपा, दया, महिमा।
आश्रय - भक्त।
उद्दीपन - मंदिर, मूर्ति आदि।
अनुभाव - ध्यान लगाना, माला जपना, आँखें मूँदना, कीर्तन करना, रोना, सिर झुकाना आदि।
उदाहरण
- राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे।
घोर भाव नीर- निधि, नाम निज भाव रे।
- अँसुवन जल सिंची-सिंची प्रेम-बेलि बोई
मीरा की लगन लागी, होनी हो सो होई