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ICSE Class 10 Saaransh Lekhan Vinay Ke Pad (Sahitya Sagar)

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Vinay Ke Pad Synopsis

सारांश



प्रथम पद में कवि तुलसीदास कहते हैं कि संसार में श्रीराम के समान कोई दयालु नहीं है वे बिना सेवा के भी दुखियों पर अपनी दयारुपी कृपा बरसाते हैं। कवि कहते हैं की बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों को योग और तपस्या से भी वह आशीर्वाद नहीं मिलता जो जटायु और शबरी को मिला। ईश्वर की कृपा दृष्टि पाने के लिए रावण को अपने दस सिर का अर्पण करना पड़ा। वही कृपादृष्टि बिना किसी त्याग के विभीषण को मिल गई। अत: हे मन! तू राम का भजन कर। राम कृपानिधि हैं। वे हमारी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करेंगे। जैसे राम ने जटायु को और शबरी को परमगति तथा विभीषण को लंका का राज्य प्रदान किया।

द्वितीय पद में कवि तुलसी दास कह रहे हैं कि जिस मनुष्य में श्रीराम के प्रति प्रेम भावना नहीं वही शत्रुओं के समान है और ऐसे मनुष्य का त्याग कर देना चाहिए। कवि कहते हैं की प्रहलाद ने अपने पिता, भरत ने अपनी माता और विभीषण ने अपने भाई का परित्याग कर दिया था। राजा बलि को उनके गुरु और ब्रज की गोपिकाओं ने अपने पति का परित्याग कर दिया था क्योंकि उनके मन में श्रीराम के प्रति स्नेह नहीं था। कवि कहते हैं की जिस प्रकार काजल के प्रयोग के बिना आँखें सुंदर नहीं दिखती उसी प्रकार श्रीराम के अनुराग बिना जीवन असंभव है। कवि कहते हैं कि जिस मनुष्य के मन में श्रीराम के प्रति स्नेह होगा उसी का जीवन मंगलमय होगा



भावार्थ/ व्याख्या



ऐसो कौ उदार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवे दीन पर,राम सरस कोउ नाहि॥
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ज्ञानी।
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी॥
जो संपति दस सीस अरप करि रावण सिव पहँ लीन्हीं।
सो संपदा विभीषण कहँ अति सकुच सहित हरि दीन्हीं॥
तुलसीदास सब भांति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो।
तो भजु राम काम सब पूरन करहि कृपानिधि तेरो॥



भावार्थ- तुलसीदासजी कहते हैं कि भगवान् राम के समान उदार संसार में और कोई नहीं है। राम के अतिरिक्त ऐसा कोई दूसरा कोई नहीं है जो दीं दुखियों पर बिना सेवा के ही करूणा करे। जो गति ज्ञानी मुनि योग और विराग तथा अनेक प्रयत्न करके भी नहीं प्राप्त कर पाते वह गति राम ने जटायु और शबरी को दिया और उस अहसान को मन में बहुत बड़ी बात न समझा। जो सम्पति रावण ने अपने दस सिर चढ़ाकर शिव से प्राप्त की थी उसे बड़े ही संकोच के साथ बिना अभिमान के राम ने विभीषण को दे दिया। तुलसीदास कहते हैं कि मेरा मन जितने प्रकार के सुख चाहता है वे सब राम की कृपा से प्राप्त हो जायेंगे। तो हे मन! तू राम का भजन कर। राम कृपा निधि हैं, वे हमारी सभी मनोकामनाएँ पूरी करेंगे।



जाके प्रिय न राम बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।1।।
तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनित्नहिं, भए मुद-मंगलकारी।।2।।
नाते नेह रामके मनियत सुह्र्द सुसेब्य जहां लौं।
अंजन कहा आंखि जेहि फूटै ,बहुतक कहौं कहाँ लौं ।।3।
तुलसी सो सब भांति परम हित पूज्य प्रानते प्यारे।
जासों होय सनेह राम–पद, एतो मतो हमारो



भावार्थ- तुलसीदास जी कहते हैं कि जिसे सीता-राम प्रिय नहीं हैं वह भले ही अपना कितना ही प्रिय क्यों नहीं हो उसे बड़े दुश्मन के सामान छोड़ देना चाहिए। कवि अनेक उदाहरणों से सिद्ध करते हैं प्रहलाद ने अपने पिता हिरणकश्यप का,विभीषण ने अपने भाई रावण का, भरत ने अपनी माँ, राजा बलि ने अपने गुरू और ब्रज की स्त्रियों ने कृष्ण के प्रेम में अपने पतियों का परित्याग किया था। उन सभी ने अपने प्रियजनों को छोड़ा और उनका कल्याण ही हुआ। आगे तुलसीदास कहते है कि ऐसे सुरमे को आँख में लगाने से क्या लाभ जिससे आँख ही फूट जाए?
तुलसीदास का यह मानना है कि जिसके कारण प्रभु के चरणों में प्रेम हो वही सब प्रकार से अपना हितकारी,पूजनीय और प्राणों से प्यारा है।

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