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ICSE Class 10 Saaransh Lekhan Netaaji Ka Chashma (Sahitya Sagar)

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Netaaji Ka Chashma Synopsis

सारांश

प्रस्तुत कहानी द्वारा समाज में देश प्रेम की भावना को जागृत किया गया है। पाठ का नायक ‘कैप्टन’ साधारण व्यक्ति होने के बावजूद भी एक देशभक्त नागरिक है। वह कभी नेताजी को बिना चश्मे के नहीं रहने देता है। इस कहानी द्वारा लेखक चाहता है कि देशवासी लोगों की कुर्बानियों को न भूलें और उन्हें उचित सम्मान दें।

कहानी का सार कुछ इस प्रकार है-

हालदार साहब को हर पन्द्रहवें दिन कंपनी के काम के सिलसिले में उस कस्बे से गुजरना पड़ता था। वह क़स्बा बहुत ही छोटा था। कहने भर के लिए बाज़ार और पक्के मकान थे। कस्बे में एक लड़कों का स्कूल,एक लड़कियों का स्कूल,एक सीमेंट का छोटा-सा कारखाना,दो ओपन एयर सिनेमाघर और एक नगरपालिका भी थी। कस्बे के मुख्य चौराहे पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक मूर्ति लगी हुई थी। नेताजी की मूर्ति वैसे संगमरमर की थी परंतु चश्मा संगमरमर का न होकर एक सामान्य और सचमुच के चश्मे का चौड़ा काला फ्रेम मूर्ति को पहना दिया गया था। हालदार साहब जब पहली बार उस कस्बे से गुजरे और चौराहे पर पान खाने रुके तभी उनका ध्यान उस मूर्ति की तरफ चला गया था कि क्या आइडिया है मूर्ति पत्थर की, लेकिन चश्मा रियल।

दूसरी बार जब हालदार साहब उस कस्बे से गुजरते हैं तो उन्हें मूर्ति में अंतर दिखाई देता है आज मूर्ति पर मोटे फ्रेमवाले वाले चश्मे के बजाय तार के फ्रेमवाला गोल चश्मा था। तीसरी बार उन्होंने फिर एक नया चश्मा नेताजी की मूर्ति पर देखा। अब तो हालदार साहब को उस कस्बे से गुजरते समय चौराहे पर रुकना,पान खाना और नेताजी की मूर्ति पर लगे चश्मे को बदलते देखने की आदत सी पड़ चुकी थी। पानवाले से पूछने पर हालदार साहब को पता चलता है कि मूर्ति पर चश्मे पर बदलने का काम कैप्टन चश्मे वाला करता है। जब भी कोई ग्राहक आता और उसे वही चश्मा चाहिए तो वो मूर्ति से निकलकर बेच देता और उसकी जगह दूसरा फ्रेम लगा देता। इस कारण मूर्ति पर हर समय एक नया चश्मा लगा रहता है। कैप्टन और कोई नहीं एक बेहद बूढ़ा मरियल-सा लंगड़ा आदमी था जो सिर पर गांधी टोपी और आँखों में काला चश्मा लागए एक हाथ में छोटी-सी संदूकची और दूसरे हाथ में बॉस पर टंगे बहुत-से चश्मे को लेकर फेरी लगाता था। जिस मजाक से पानवाले ने उसके बारे में बताया हालदार साहब को अच्छा न लगा।

हाल दार साहब दो साल तक उस कस्बे से गुजरते रहे और नेताजी की मूर्ति में बदलते चश्मे को देखते रहे। कभी गोल चश्मा होता, तो कभी चौकोर, कभी लाल, कभी काला, कभी धूप का चश्मा, कभी बड़े कांचोंवाला गो-गो चश्मा। फिर एक बार ऐसा हुआ कि मूर्ति की चेहरे पर कोई भी, कैसा भी चश्मा नहीं था। दूसरी बार गुजरने पर भी मूर्ति का चश्मा नदारद था। पानवाले से पूछने पर पता चला कि कैप्टन की मृत्यु हो गई। कैप्टन की मृत्यु की खबर सुनकर हालदार साहब मायूस हो जाते हैं उन्हें लगता है कि अब कहाँ कैप्टन जैसा देशभक्त होगा जो नेताजी की मूर्ति को बिना चश्मे के देख पाए। अत: हालदार साहब ने फैसला ले लिया कि अब के बाद वे इस कस्बे से गुजरते समय वे यहाँ न तो रुकेंगे और पान खाएँगे। यही निर्देश उन्होंने अपने ड्राइवर को भी दिया परंतु आदतानुसार कस्बे से गुजरते समय उनकी आँखें मूर्ति की तरफ मुड़ ही जाती है और मूर्ति पर चश्मा देखकर आश्चर्यचकित भी हो उठती हैं। ड्राइवर को तुरंत रुकने का निर्देश देते हैं और मूर्ति की ओर बढ़ते हैं तो क्या देखते हैं बच्चों द्वारा सरकंडे का चश्मा नेताजी की मूर्ति पर लगा हुआ था। हालदार साहब यह देखकर भावुक हो उठते हैं और उनकी आँखें भर आती है।

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