ICSE Class 10 Saaransh Lekhan Matru Mandir Ki Or (Sahitya Sagar)
Matru Mandir Ki Or Synopsis
सारांश
प्रस्तुत कविता आत्मबलिदान की भावना से ओत-प्रोत कविता है। कवयित्री का देश-प्रेमी हृदय व्यथित है क्योंकि हमारा भारत देश पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। अंग्रेज़ हम पर अमानवीय अत्याचार कर रहे थे और देशभक्त स्वतंत्रता-सेनानियों के अथक प्रयास के बावज़ूद देश को स्वतंत्र कराने का स्वप्न पूरा नहीं हो पा रहा था। कवयित्री मन में आए इन्हीं भावों को प्रकट करने के लिए मंदिर जाना चाहती है। कवयित्री ईश्वर से यह प्रार्थना करती है कि वह अत्यंत दीन, दुर्बल, छोटी और अज्ञानी हैं और भारत माँ के मंदिर तक पहुँचने मार्ग अत्यंत कठिन भी है। साथ ही रास्ते में पहरेदार भी बाधक हैं। कवयित्री को मंदिर में ज्योतियाँ भी दिखाई दे रही है वाद्य भी बज रहे हैं परंतु वह वहाँ तक पहुँच नहीं सकती। कवयित्री शीघ्रता से वहाँ पहुँचना चाहती है। अत: ईश्वर उनकी सहायता करे और उन्हें ऐसी शक्ति प्रदान करे कि वे वहाँ तक पहुँचने में सफल हों और भारत माँ की रक्षा करने हेतु आत्मबलिदान कर सकें।
भावार्थ/ व्याख्या
व्यथित है मेरा हृदय-प्रदेश
चलूँ उसको बहलाऊँ आज।
बताकर अपना सुख-दुख उसे
हृदय का भार हटाऊँ आज।।
चलूँ मां के पद-पंकज पकड़
नयन जल से नहलाऊँ आज।
मातृ-मन्दिर में मैंने कहा-
चलूँ दर्शन कर आऊँ आज।।
भावार्थ- कवयित्री का ह्रदय व्यथित है। अपने ह्रदय के दुःख को वह दूर करने के लिए माता के मंदिर जाना चाहती है। अपना ह्रदय का दुःख माता के साथ साझा कर वे अपने दुःख को कम करना चाहती है। माता के चरणों को आँसुओं से धोकर कवयित्री अपने दुःख को व्यक्त करना चाहती है इसलिए वह माता के मंदिर में दर्शन के लिए जाना चाहती है।
किन्तु यह हुआ अचानक ध्यान
दीन हूँ, छोटी हू, अंजान!
मातृ-मन्दिर का दुर्गम मार्ग
तुम्हीं बतला दो हे भगवान!
मार्ग के बाधक पहरेदार
सुना है ऊँचे-से सोपान।
फिसलते हैं ये दुर्बल पैर
चढ़ा दो मुझको यह भगवान!
भावार्थ- सहसा कवयित्री को ध्यान आता है की वे दीन हैं और मंदिर का मार्ग भी दुर्गम है इसलिए वह माता से प्रार्थना करती है कि वे उन्हें मंदिर तक पहुँचने का मार्ग दिखला दें। मंदिर की सीढ़ियाँ भी ऊँची हैं और मार्ग में पहरेदार भी बाधक बने हुए हैं। उनके पैर भी दुर्बल हैं जो फिसलते जाते हैं। अत: ऐसी स्थिति में माता ही मंदिर तक पहुँचाने में उनकी सहायता करें।
अहा! वे जगमग-जगमग जगी
ज्योतियाँ दीख रहीं हैं वहाँ।
शीघ्रता करो, वाद्य बज उठे
भला मैं कैसे जाऊँ वहाँ?
सुनाई पड़ता है कल-गान
मिला दूँ मैं भी अपने तान।
शीघ्रता करो, मुझे ले चलो
मातृ-मन्दिर में हे भगवान!
भावार्थ- कवयित्री को दूर से ही जगमग ज्योति दिख रही है उन्हें वाद्य यंत्र भी सुनाई दे रहे हैं। अत: वे जल्द-से-जल्द पहुँचना चाहती हैं लेकिन उन्हें कोई उपाय दिखाई नहीं दे रहा है। मंदिर में बज रहे गीतों से वह ताल से ताल मिलाना चाहती है इसलिए वह शीघ्रता से मंदिर में पहुँचाने की ईश्वर से प्रार्थना करती है।
चलूँ मैं जल्दी से बढ़ चलूँ
देख लूँ माँ की प्यारी मूर्ति।
अहा! वह मीठी-सी मुसकान
जगाती होगी न्यारी स्फूर्ति।।
उसे भी आती होगी याद
उसे? हाँ, आती होगी याद।
नहीं तो रूठूँगी मैं आज
सुनाऊँगी उसको फरियाद।।
भावार्थ- जल्दी ही कवयित्री माता की मूर्ति देख लेना चाहती है। माँ की मूर्ति देखकर उनमें स्फूर्ति आ जाती है। जिस तरह वे माँ को याद करती है ठीक उसी प्रकार माँ भी तो उन्हें याद कर रही होगी। यदि माँ उन्हें याद नहीं कर रही होगी तो वे माता से रूठ जाएँगी और माता से फ़रियाद करेंगी।
कलेजा माँ का, मैं सन्तान,
करेगी दोषों पर अभिमान।
मातृ-वेदी पर घण्टा बजा,
चढ़ा दो मुझको हे भगवान्!!
सुनूँगी माता की आवाज,
रहूँगी मरने को तैयार।
कभी भी उस वेदी पर देव!
न होने दूँगी अत्याचार।।
न होने दूँगी अत्याचार
चलो, मैं हो जाऊँ बलिदान
मातृ-मन्दिर में हुई पुकार
चढ़ा दो मुझको हे भगवान।
भावार्थ- कवयित्री कहती है कि माता मेरे सारे दोषों को माफ़ कर देगी क्योंकि माता कभी भी कुमाता नहीं हो सकती है माता की रक्षा के किये मातृवेदी पुकार रही है माता पर बलिदान होने के लिए सहर्ष तैयार हैं। वे भारतमाता की रक्षा के लिए अपना बलिदान देने के लिए तत्पर हैं। वे माता पर कोई अत्याचार नहीं होने देगीं। चाहे इसके लिए उन्हें अपना बलिदान ही क्यों न देना पड़े।
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