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ICSE Class 10 Saaransh Lekhan भिक्षुक (साहित्य सागर) (Bhikshuk (Sahitya Sagar))

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Bhikshuk Synopsis

सारांश

प्रस्तुत कविता में कवि ने एक भिक्षुक का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। कवि जब उस भिक्षुक को देखते हैं तो उसकी दयनीय दशा को देखकर उनका ह्रदय द्रवित हो उठता है। भिक्षुक इतना कमजोर है कि उसका पेट और पीठ मिलकर एक हो गए हैं। लाठी के सहारे वह चलता है। मुठ्ठी भर दानों को पाने के लिए वह फटी-पुरानी झोली फैलाता है। उसके साथ दो बच्चे भी हैं जो एक हाथ से भूख से पेट को मल रहे हैं और दूसरे हाथ से भीख माँग रहे थे। उनके ओंठ भी भूख से सूख गए हैं। सड़क पर पड़ी जूठी पत्तलों से वे भूख मिटाने का प्रयास करते हैं पर वहाँ भी उनका दुर्भाग्य उनका साथ नहीं छोड़ता। वे पत्तलों पर कुत्ते झपट पड़ते हैं। यहाँ पर कवि ने भिक्षुक को अभिमन्यु की तरह संघर्ष करने की प्रेरणा दी है।

 

भावार्थ/ व्याख्या



वह आता-

दो टूक कलेजे को करता,पछताता

पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,

चल रहा लकुटिया टेक,

मुट्ठी भर दाने को- भूख मिटाने को

मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-

दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।



भावार्थ- कवि निराला वर्णन करते हैं कि जब भिक्षुक आता दिखाई देता है, तो उसकी दयनीय दशा देखकर हृदय के टुकड़े होने लगते है। वह स्वयं अपनी भी करुणाजनक स्थिति से सभी को हार्दिक वेदना से भर देता है। कारण यह है कि वह इतना दुर्बल और कमजोर है कि उसका पेट और पीठ मिलकर अर्थात् एकदम पिचककर कर एक ही प्रतीत होते है। वह अपने कष्टमय जीवन को लेकर पछताता रहता है और अपनी लाठी टेक-टेक कर चल रहा है।

वह एक मुट्ठी दाने को प्राप्त करके अपनी भूख मिटाना चाहता है और इसके लिए लोगों के सामने अपनी फटी हुई पुरानी झोली को फैलाता रहता है। उसकी उस स्थिति को देखकर संवेदनशील व्यक्ति के हृदय के दो टुकड़े होने लगते है। उस गरीब की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है, इस कारण दुख का अनुभव करते हुए वह अपने जीवन पर पछताता है और नित्य ही मार्ग पर आता-जाता दिखाई देता है।


साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,

बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,

और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।

भूख से सूख ओठ जब जाते

दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?

घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।

चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,

और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!

 

ठहरो! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा

अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम

तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।



भावार्थ- कवि वर्णन करता है कि उस भिखारी के साथ दो बच्चे भी है, जो सदा ही भिक्षा पाने के लिए हाथ फैलाये रहते है। वे बाएँ हाथ से अपने पेट को मलते हुए अर्थात् पेट की भूख से उत्पन्न वेदना को सहलाते हुए चलते है तथा दायाँ हाथ दाताओं की दया-वृष्टि अर्थात् भिक्षा प्राप्त करने के लिए सामने फैलाये रहते हैं।

भिक्षुक जब भूख से व्याकुल हो जाता है और प्यास से उसके होंठ सूखने लगते है, तब उसकी स्थिति बङी दयनीय बन जाती है। ऐसी स्थिति में कोई भी व्यक्ति दाता बनकर उसकी सहायता नहीं करता है। उसे लोगों से भी कुछ नहीं मिलता है। इस कारण भूख और प्यास से व्याकुल भिक्षुक केवल अपने आँसुओं को पीकर रह जाता है, अर्थात् निराश होकर अपने दर्द को दबाकर चुप रह जाता है। कवि कहता है कि कभी-कभी भिक्षुक सड़क पर खङे रहकर जूठी पत्तलें चाटते हुए भी दिखाई देते हैं, किन्तु उन पत्तलों को झपट लेने के लिए कुत्ते भी अड़े रहते है। उस स्थिति को देखकर कवि करुणा और संवेदना से विगलित हो जाता है। इसलिए वह कहता है कि मैं अपने हृदय का सारा अमृत निकालकर इसके सूखे होठों को सरस कर दूँगा और जीवन-शक्ति देकर इसकी भूख शान्त कर दूँगा। कवि कहते हैं कि व्यक्ति यदि संघर्ष करे, तो दृढ़ सकंल्प करके वह जीवन के कष्टों को मिटाकर अपने लिए नया पथ बना सकता है, वह अभिमन्यु की भाँति अकेले ही सारी बाधाओं को झेल सकता है। अन्त में कवि भावुक होकर कहता है कि वह ऐसे भिक्षुकों के दुःखों को खींचकर अपने हृदय में रखना चाहता है और अपने हृदय की सारी संवेदनाओं को देकर बदले में उसे सुखी और तृप्त देखना चाहता है।

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