CBSE Class 8 Saaransh Lekhan Jahan Pahiya Hai
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Jahan Pahiya Hai Synopsis
सारांश
“जहाँ पहिया है” पाठ के लेखक “पालगम्मी साईनाथ जी” हैं। पालगम्मी साईनाथ जी इस लेख के द्वारा एक साईकिल आंदोलन की बात करते हैं कि तमिलनाडू के क्षेत्र में प्रसिद्ध जिले पुडुकोट्टई में किस तरह से महिलाओं ने साइकिल के पहिये को एक आंदोलन का रूप देती हैं और किस तरह से वह स्वतंत्र होती हैं। अपने घर और समाज से बाहर निकलकर आत्मनिर्भर बनती हैं।
लेखक इस रिपोर्ट के द्वारा बताते हैं कि जंजीरों द्वारा समाज में फैली हुई रूढ़ियाँ संकेत कर रही हैं कि हमारे पुरुष प्रधान समाज में नारी को हमेशा से दबना पड़ा है। पर जब वह दमित नारी कुछ करने की ठानती है, तो ये ज़ंजीरें लगती हैं। तमिलनाडु की महिलाओं ने इन्ही जंजीरों को तोड़ने के लिये साइकिल चलाना शुरू किया।
भारत के सबसे गरीब जिलों में तमिलनाड़ू का पुडुकोट्टई जिला माना जाता है। कुछ दिनों पहले इस पुडुकोट्टई जिले की ग्रामीण महिलाओं ने अपनी आजादी की लड़ाई और अपने काम को आगे प्रगति की ओर ले जाने के लिए प्रतीक के रूप में साइकिल को चुना है। एक छोटा सा बदलाव किस तरह से उनकी जीवन और उनकी स्थिति को बदल कर रख सकता है, यह पुडुकोट्टई के जिले की गाँव की महिलाओं ने कर दिखाया। उनमें से अधिकतर औरतें और लड़कियाँ नयी-नयी पढ़ लिखकर स्कूल या कॉलज से आई थीं और उन्होंने साइकिल आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था।
साइकिल सीखी एक महिला ने लेखक को बताया कि उस पर साइकिल चलाने के कारण लोगों ने व्यंग किया पर उसने ध्यान नहीं दिया।
लेखक बताते हैं कि इस ज़िले में साइकिल की धूम मची हुई है। जहाँ देखों चारों तरफ साइकिल की ही बात होती है, स्त्रियाँ, पुरूष सब साइकिल चलते हुए नजर आते हैं। इसको पंसद करने वालों में, जो महिलाएँ खेतों में काम करती हैं, पत्थर खदानों में मजदूरी करने वाली औरतें और गाँवों में काम करने वाली नर्सें। यह सभी शामिल है। बालवाड़ी और आँगनवाड़ी कार्यकर्ता, बेशकीमती पत्थरों को तराशने में लगी औरतें और स्कूल की अध्यापिकाएँ भी साइकिल का जमकर उपयोग कर रही हैं। यहाँ पर यह भी देखा जा रहा है कि हर वर्ग की स्त्रियाँ चाहे वो अध्यापिका हैं, नर्स है या फिर खेतीहर मजदूर हैं, पत्थर की खदानों में काम करने वाली औरतें हैं, सब बढ़-चढ़ कर साइकिल चला रही हैं और आत्मनिर्भर बन रही हैं। इसमें उनकी बहुत उन्नती हुई है उनकी आर्थिक स्थिति सुधारी है।
लेखक बताते हैं कि फातिमा नामक एक महिला को साइकिल का इतना चाव था कि वो रोज़ आधा घंटा किराये पर साइकिल लेती थी, गरीब होने के कारण वह साइकिल खरीद नहीं सकती थी। वहाँ लगभग सभी महिलाएँ साइकिल चलाती थी। 1992 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर 1500 महिलओं ने साइकिल चलाई। लेखक कहता है कि 1992 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के बाद अब यह ज़िला कभी भी पहले जैसा नहीं हो सकता क्योंकि अब यहाँ की परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। महिलाओं ने अपने साइकिल आंदोलन के द्वारा अपनी आजादी की लड़ाई लड़ी और आत्मनिर्भर बनी हैं। उस दिन का दृश्य बताते हुए लेखक कहते हैं कि उस दिन स्त्रियाँ साइकिल पर रंग-बिरंगी झंड़ियाँ लगाए आई थी, घंटियाँ बज़ाते हुए साइकिल पर सवार 1500 महिलाओं ने पुडुकोट्टई में तूफान ला दिया। चारों तरफ स्त्रियाँ साइकिल पर नजर आ रही थी और इन्होंने बढ़-चढ़ कर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस में हिस्सा लिया। महिलाओं की साइकिल चलाने की इस तैयारी ने वहाँ रहने वालों को हैरान कर दिया था।
वह महिलाएँ जो पहले पिता या भाई पर आश्रित थी, वह अब आसानी से कहीं भी आ जा सकती थी। इस आंदोलन से महिलाओं के न सिर्फ आर्थिक पक्ष को मजबूत किया बल्कि उनमें एक नए आत्मविश्वास का संचार भी हुआ। पुरुष वर्ग को इससे एतराज़ नहीं होना चहिए पर यदि होता है तो भी महिलाएँ इसकी परवाह नहीं करती।
लेखक कहता है कि एक महिला ने उसे बताया लोगों के लिए यह समझना बड़ा कठिन है कि ग्रामीण महिलाओं के लिए साइकिल पर काम पर आना-जाना कितनी बड़ी चीज है। उनके लिए तो यह हवाई जहाज उड़ाने जैसी बड़ी उपलब्धि है। जो औरतें पहले घर से बाहर नहीं निकल सकती थी, अब वह साइकिल पर जाकर अपने खुशी से अपनी इच्छा से अपने काम कर सकती है। लोग इस पर हँस सकते हैं, लेकिन केवल यहाँ की औरतें ही समझ सकती हैं कि उनके लिए यह कितना महत्वपूर्ण है।
जो पुरुष इसका विरोध करते हैं, वे जाएँ और टहलें क्योंकि जब साइकिल चलाने की बात आती है, वे महिलाओं की बराबरी कर ही नहीं सकते।