CBSE Class 6 Saaransh Lekhan Bachpan
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Bachpan Synopsis
सारांश
प्रस्तुत पाठ लेखिका कृष्णा सोबती द्वारा लिखा गया संस्मरण है। इस पाठ में उन्होंने अपने बचपन की खट्ठी-मिट्ठी यादों से पाठकों को परिचित करवाया है।
कहानी का सार कुछ इस प्रकार है-
लेखिका कहती है कि वह उम्र के हिसाब से किसी की दादी, नानी, बड़ी बुआ या बड़ी मौसी भी हो सकती है परन्तु वैसे उसके परिवार में सब उन्हें जीजी के नाम से ही पुकारते हैं। लेखिका अपने पहनावे में आए बदलाव के बारे में बताते हुए कहती है कि पहले वे रंग-बिरंगे जैसे नीला, जमुनी, ग्रे, काला, चॉकलेटी आदि कपडे पहनतीं थीं। अब वे सफेद रंग के कपड़े पहनना पसंद करती हैं। बचपन में जहाँ उन्हें फ्रॉक, निकर-वॉकर, स्कर्ट, लहँगे, गरारे पहनना पसंद था आज वे अब चूड़ीदार और घेरदार कुर्तें पहनतीं हैं। बचपन की कुछ फ्रॉक तो उन्हें आज भी याद हैं।
लेखिका को अपने मोजें और स्टाकिंग भी याद है। लेखिका को अपने मौजे खुद ही धोने पड़ते थे उन्हें वे नौकरों को नहीं दे सकती थीं। अपने जूतों को भी रविवार के दिन खुद ही पॉलिश करनी होती थी। लेखिका को नए जूतों के बजाय पुराने जूते पहनना पसंद था क्योंकि नए जूतों से उनके पैरों में छाले पड़ जाते थे। सेहत को ठीक रखने के लिए हर शनिवार ऑलिव ऑइल या कैस्टर ऑइल पीना पड़ता था।
लेखिका आगे बताती है कि उन दिनों रेडिओ और टेलीविजन नहीं था। केवल कुछ ही घरों में ग्रामोफ़ोन हुआ करते थे। लेखिका के अनुसार अब तो खाने भी भी बदलाव हो गया है। पहले की कुल्फ़ी आइसक्रीम में, तो कचौड़ी-समोसा पैटीज में बदल गए हैं। यहाँ तक कि शरबत भी कोक-पेप्सी बन गए हैं। लेखिका के घर के पास ही मॉल था परन्तु हफ्ते में एक ही बार चॉकलेट खरीदने की छूट थी। उन दिनों लेखिका के पास ही सबसे अधिक चॉकलेट रहा करती थी। उन्हें चना जोर ग्राम और अनारदाने का चूर्ण बेहद पसंद था। लेखिका को अब भी चने जोर गरम का स्वाद पहले जैसा ही लगता है।
लेखिका ने अपने बचपन के दिनों में शिमला के रिज पर बहुत मजे किये हैं। घोड़ों की सवारी भी की थी। सूर्यास्त के समय दूर-दूर तक फैले पहाड़ मनोरम दृश्य प्रस्तुत करते थे। चर्च की बजती हुई घंटियों का संगीत सुनकर ऐसा लगता था मानो प्रभु ईश कुछ कह रहे हो। स्कैंडल पॉइंट के सामने के शोरुम में शिमला कालका ट्रेन का मॉडल बना था। पिछली सदी के हवाई जहाज भी देखने को मिल जाया करते थे। लेखिका को हवाई जहाज के पंख किसी भारी-भरकम पक्षी के लगते थे जो उन पंखों को फैलाकर उड़ा जा रहा हो। गाड़ी के मॉडल वाली दुकान के पास ही चश्में की दुकान को लेखिका नहीं भूलतीं क्योंकि उनका पहला चश्मा उसी दुकान से बना था और वहाँ के डॉक्टर अंग्रेज थे।
शुरू-शुरू में लेखिका को चश्मा लगाना अटपटा लगता था। डॉक्टर ने उन्हें आश्वासन दिया था कि कुछ दिनों में चश्मा उतर जाएगा परन्तु लेखिका कहती है वह आज तक नहीं उतरा। पहली बार जब उन्होंने चश्मा लगाया था तो उनके भाइयों ने उन्हें खूब चिढ़ाया था। धीरे-धीरे उन्हें उसकी आदत लग गई।
लेखिका उस टोपे, काली फ्रेम के चश्में और भाइयों द्वारा लंगूर चिढाये जाने को याद करती है। अब लेखिका को हिमाचली टोपियाँ पहनना पसंद है और उन्होंने कई रंगों में जमा भी कर लीं हैं।