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CBSE Class 8 Saaransh Lekhan Bas Ki Yaatra

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Bas Ki Yaatra Synopsis

सारांश


बस की यात्रा पाठ लेखक हरिशंकर परसाईं द्वारा एक व्यंग्यात्मक यात्रा वृतांत है। इस पाठ के द्वारा लेखक ने उन प्राइवेट बस कंपनियों पर व्यंग्य किया है जो केवल मुनाफे के लिए यात्रियों की जान के साथ खिलवाड़ करते हैं।
कहानी का सार कुछ इस प्रकार है-
लेखक और उसके चार साथियों को जबलपुर जाने वाली ट्रेन पकड़नी थी। इसके लिए उन्होंने ने बस से पन्ना से सतना जाने का निश्चय किया उन्हें लगा की यह बस उन्हें समय पर पहुँचा देगी क्योंकि वे सुबह ही पहुँचना चाहते थे। दो मित्रों को सुबह ही अपने काम पर पहुँचना था। उन्हें कुछ समझदार लोगों ने शाम की बस से सफर न करने की सलाह भी दी थी।


लेखक ने जब बस को देखा तो वह जर्जर हालत में थी। लेखक कहते हैं कि बस को देखते ही उनके मन में श्रद्धा उमड़ पड़ी क्योंकि बस बहुत ही पुरानी थी। लेखक को लगा ये बस तो केवल पूजा करने योग्य। इस पर चढ़ा कैसे जा सकता है? इसी बस में बस कंपनी के एक हिस्सेदार भी यात्रा कर रहे थे। उनके अनुसार बस एकदम ठीक थी और अच्छी तरह से चलेगी। बस की हालत देखकर लेखक और उसके मित्र यात्रा का निश्चय नहीं कर पा रहे थे। लेखक के एक डॉक्टर मित्र ने कहा कि यह बस नई-नवेली बसों से भी ज्यादा विश्वसनीय है क्योंकि अनुभवी बस है। उनकी बात सुनकर लेखक अपने मित्रों के साथ बस में बैठ गया। जो लोग छोड़ने आए थे, वे ऐसे देख रहे थे मानों वे इस दुनिया से जा रहे हैं।
बस के शुरू होते ही सारी बस हिलाने लगी। खिड़कियों के बचे-खुचे काँच भी गिरने की स्थिति में पहुँच गए। लेखक को डर लग रहा था कि कहीं काँच गिरकर उन्हें घायल ही न कर दें। उन्हें लगा जैसे सारी बस की इंजन है और वे लोग इंजन के ऊपर ही सवारी कर रहे हैं। बस को चलता देखकर लेखक को गाँधीजी के असहयोग आंदोलन की याद हो आई क्योंकि बस का हर एक हिस्सा एक दूसरे से असहयोग कर रहा था। आठ-दस मील बस के चलने के बाद ही लेखक को लगा जैसे वह सीट पर नहीं सीट उन पर बैठी है।


बस अचानक रुक जाती है पता चलता है कि पेट्रोल की टंकी में छेद हो गया है। ड्राईवर ने पेट्रोल निकालकर बाल्टी में भर दिया है और अब अपनी बगल में रखकर इंजन में भेज रहा है। लेखक सोच रहा था कि अब बस का मालिक इंजन गोद में रख लेंगे और उसे नली से पेट्रोल पिलाएँगे, जैसे माँ अपने बच्चे को शीशी से दूध पिलाती है। बस की चाल कम हो गई। लेखक का बस पर से पूरा भरोसा उठ गया था। उन्हें लग रहा था कि कहीं बस का स्टेयरिंग न टूट जाय। उस समय रास्ते के हरे-भरे पेड़ भी लेखक को अपने दुश्मन ही लग रहे थे। क्योंकि बस उनसे टकरा सकती थी। सड़क के किनारे झील देखने पर वे सोचने लगते हैं की कहीं बस इसमें ही गोता न मार दे।


इसी बीच बस पुन: रुक गई। ड्राइवर के प्रयासों के बाद भी बस न चली। कंपनी का हिस्सेदार उसे फर्स्ट क्लास बताकर बस के रुकने को मात्र संयोग बता रहा था। कमजोर चांदनी में बस ऐसी लग रही थी मानो जैसे कोई वृद्धा थककर बैठी हो। लेखक को डर लग रहा था की इतने सारे लोगों के बस में बैठने से बस का प्राणांत न हो जाय और सबको मिलकर इस बस की अंतेष्टि न करनी पड़े।


कंपनी के हिस्सेदार ने बस के इंजन को खोलकर कुछ ठीक किया। बस चल पड़ी पर अब तो उसकी रफ़्तार और भी कम हो गई। बस की हेड लाईट की रोशनी भी कम होती जा रही थी। बस बहुत धीरे-धीरे चल रही थी। अन्य गाड़ियों के आने पर वह किनारे खड़ी हो जाती थी। बस कुछ दूर चलकर पुलिया पर पहुँची थी कि उसका टायर फट गया। बस झटके से रुक गई। बस यदि स्पीड में होती तो नाले उछलकर नाले में गिर जाती। लेखक बस कंपनी के हिस्सेदार को श्रद्धाभाव से देख रहा था क्योंकि वह अपनी जान की परवाह किये बिना बस में सफर कर रहा था।लेखक को लगा उसके साहस और बलिदान की भावना का सही उपयोग नहीं हो रहा था। इस बस कंपनी के हिस्सेदार को तो क्रांतिकारी आंदोलन का नेता होना चाहिए था।


बस के नाले में गिरने से यदि यात्रियों की मृत्यु हो जाती तो देवता भी बाँहें पसारे उसका इन्तजार करता और कहता कि वह महान आदमी आ रहा है जिसने अपनी जान दे दी पर बस का टायर नहीं बदलवाया। दूसरा घिसा टायर लगने पर बस चल पड़ी। लेखक और उसके मित्र पन्ना या कहीं भी कभी भी जाने की उम्मीद छोड़ चुके थे। उन्हें लग रहा था कि पूरी जिंदगी उन्हें इसी बस में बिताना पड़ेगा। अब वे सभी भी घर की तरह आराम से बस में बैठ गए और चिंता छोड़कर हँसी-मजाक में शामिल हो गए।

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